बंद करे

इतिहास

वर्तमान ऊना 1 नवम्बर 1966 से पूर्व पंजाब के होशियारपुर जिला की एक तहसील थी। पंजाव के पुर्नगठन के परिणाम स्वरूप, समस्त पहाड़ी क्षेत्रो, ऊना तहसील को हिमाचल प्रदेश में स्थानातरित किया गया। 1 सितम्बर 1972 तक यह निरन्तर काँगड़ा जिला की तहसील रही। 1 सितम्बर 1972 को हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिला का पुर्नगठन करके तीन जिले ऊना, हमीरपुर व काँगड़ा अस्तित्व में आये। ऊना जिले में  पांच उप-मण्डल (ऊना, अम्ब , हरोली , बंगाणा  और गगरेट ), पांच तहसीलें  (ऊना,अम्ब, बंगाणा, हरोली और घनारी ) और सात उप-तहसीलें (भरवाई, ईसपुर,जोल,दुलेहड, बीहरु कलां, गगरेट स्थित कलोह, मेहतपुर  बसदेडा) बनाई गईं और इसमें पांच विकास खंड हैं (ऊना, बंगाणा, गगरेट, अम्ब और हरोली) ।

स्वतन्त्राता पूर्व इतिहास

सोलह सिंघी धार (बंगाना)

सोलह सिंघी धार (बंगाना)

ऐसा विश्वास है कि वर्तमान ऊना पूर्वीय भाग को छोड़कर पूर्ववत काँगड़ा राज्य का एक हिस्सा था। समूचा वर्तमान जिला ऊना जसवां-दून रियासत के नाम से जाना जाता था जिसमे काँगड़ा कटोच परिवार का अध्पित्य था। जसवां-दून घाटी जसवां रियासत की एक उपजाऊ हिस्सा थी जिसकी नींव नये 1170 ई0 पूर्व में कटोच वंश केपूर्णचन्द द्वारा रखी गई थी। जसवां मूल राज्य की प्रथम शाखा थी। इसका कोई प्रमाण नही है कि यह राज्य मूलतः एक जागीर थी जो मुस्लिम आक्रमणकारियों के समय स्वतन्त्रा राज्य के रूप में ऊभरी। राजा पूर्ण चन्द से राजा उमुद चन्द तक 27 राजाओं ने राज्य किया। अकबर के शासन काल के समय मुगल शासन के अधीन आने से पूर्व इस राज्य के इतिहास के बारे अधिक जानकारी उपलब्ध् नहीं है।

एक दो विद्रोहो को छोड़कर यह राज्य अधिकतर मुगल साम्राज्य का सहायक रहा तथा आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता भी उपलब्ध् करवाता रहा मुगल साम्राज्य के पतन के उपरान्त जसवां राज्य सिक्खों के अधीन हो गया और सन् 1786 ई0 मे काँगड़ा के राजा संसार चन्द ने पहाड़ी राज्यों पर एकछत्र अधिकार प्राप्त कर लिया। उसका अपने परिवार की शाखाओं के उपर भारी हाथ था जिन्होने अमर सिंह थापा की कमान के अन्तर्गत शाखा द्वारा काँगड़ा पर आक्रमण के समय आपस में हाथ मिला लिया था।  

सन् 1809 ई0 में गोरखों को काँगड़ा किले से खदेड़े जाने पर जसवां राज्य को रणजीत सिंह के अधीन सन् 1815 ई0 में सिक्ख राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। उस वर्ष की हेमन्त ऋतु में महाराजा रणजीत सिंह ने सभी फौजों, अधीनस्थ राज्यों को सयालकोट में एकत्रित होने के आदेश दिए, दुर्भाग्यवश नूरपुर और जसवां के शासकों द्वारा उपरोक्त आदेशों की अवहेलना के परिणाम स्वरूप उन पर उनकी आर्थिक क्षमता से अध्कि दण्ड़ का ऐलान कर दिया गया। राजा उमेद सिंह द्वारा खामोशी से दण्ड़ के फलस्वरूप स्वीकारने अपने राज्य का त्याग करने के बदले 12,000/- बार्षिक मूल्य की जागीर को स्वीकार करने के साथ ही 600 वर्ष पुराने जसवां राज्य का पतन हो गया।

जसवां राज्य को पूर्ण पतन से पूर्व एक और चुनौती और दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा। 9 मार्च 1846 की लाहौर सन्धि् के परिणाम स्वरूप होशियारपुर को जलंधर दौआवा के एक भाग के रूप में अंग्रेज साम्राज्य में सम्मिलित कर दिया गया। जसवां के राजा तथा अन्य राजपूत राजाओं की धरणा थी कि अंग्रेज अध्किरियों द्वारा शिमला पहाड़ी राज्यो के शासकों के साथ जैसा विन्रम व्यवहार करते हुए उनके राज्य उन्हे सौंप दिये गए थें उसी तरह व्यवहार उनके साथ भी किया जायेगा परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। परन्तु यह विदित होने पर की स्वामीत्व परिवर्तन के उपरान्त भी उनके पदवियों में कोई अन्तर रहीं आया उनका रूझान सिखों के प्रति सौहादपूर्ण हो गया जिसके फलस्वरूप 1848 के द्वितीय सिक्ख युद्व में उन्होने सिक्खों का साथ दिया और राजा उमेद सिंह ने अग्रेजी सता के विरूद्व पहाड़ी शासकों के साथ विद्रोह में सम्मिलित हो गए। जान लारेंस जोकि होशियारपुर के कमीश्नर थे ने राजाओं के किलों पर धवा वोल कर उन्हें हरा दिया। राजा उमेंद सिंह की सम्पति को जब्त कर लिया गया तथा उन्हे उनके सपुत्रा जय सिंह को कमाऊँ, गढ़वाल के अलमोड़ा नामक स्थान पर भेज दिया गया यहां वो मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ समय पश्चात जम्मू के महाराजा गुलाव सिंह के अनुरोध् पर राजा रण सिंह सपुत्र राजा जय सिंह को वापिस अपने राज्य में आने की अनुमति दे दी गई ताकि उनके सपुत्र रघुनाथ सिंह का विवाह महाराजा गुलाब सिंह की पोती के साथ सम्भव हो सकें। 

1871 में जम्मू के महाराजा रणवीर सिंह की प्रार्थना पर अग्रेजों ने जसवां की जागीर राजा रण सिंह को वापिस कर दी जोकि राजा उमेद सिंह के पास थी तथा जिसमें जसवां दून घाटी के 21 गांव, महल व अम्ब में स्थित परिवारिक बगीचा सम्मिलित थें। राजा रण सिंह की 1892 में मृत्यु हो गई तथा उसके पश्चात उनके पुत्रा राजा रघुनाथ सिंह ने कार्यभार संभाला, परन्तु उनकी भी 1918 में मृत्यु हो गई। तत्पश्चात लक्ष्मण सिंह ने बागडोर संभाली तथा उन्होने अम्ब में रहना शुरू किया। लक्ष्मण सिंह के देहांत के बाद उनके सपुत्र चनी सिंह ने भी अम्ब में ही रहना शुरू किया। 

कुट्लेहर घाटी का दृश्य

कुट्लेहर घाटी का दृश्य

लेकिन कुटलैहड़ राज्य की व्याख्या के पूर्व जोकि वर्तमान जिला ऊना के पूर्व में स्थित है ऊना की बेदी जागीर का उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक है। जिला होशियारपुर की राज विविरणि का 1884 में वर्णन आता है कि पिछली शताब्दी के शुरू में वेदी बाबा कलाधरी जो बाबा नानक के उतराधिकारी थे डे़रा बाबा नानक जोकि गुरदासपुर में स्थित है से स्थानान्तरित हुए तथा जलन्ध्र दौआबा में कुछ साल भटकने के उपरान्त अन्ततः ऊना में वस गये। यहाँ पर वे अनुयाथियों की भीड़ से काफी प्रभावित हुए जो उनके पास ग्रन्थ साहिव जाकि आज तक एक कठिन किताब समझी जाती है के मधुर उपदेश सुनने आया करते थे। जसवाल राजा राम सिंह ने बंदियों को सतर घुआँ जमीन का राजस्व देकर अपने आप को काफी प्रसिद्व किया। सम्वत 1860 (1840 ए0डी0) में राजा उमेंद सिंह ने बाबा साहिब सिंह बेदी को सम्पूर्ण ऊना तालुका दे दिया जोकि सम्बत 1872 में महाराणा रणजीत सिंह द्वारा स्थायी किया गया। उसी समय उन्हें नुरपूर तालुका भी सरदार बुद्व सिंह द्वारा दे दिया गया। बाद में महाराजा शेर सिंह ने बाबा विक्रम सिंह बेदी को तलहटी भेंट की तथा इस प्रकार ऊना की वेदी जागीर फलती-फूलती गई। 1846 ई0 में अंग्रजों द्वारा जलन्ध्र दौआवा के विल्य के समय, बाबा विक्रम सिंह सवसे शक्तिशाली जागीरदार था जो उस क्षेत्रा में बचा हुआ था। वह दो जाख रूपये श्री जागीर का मालिक था जिसमें महाराजा शेर सिंह तथा महाराजा दलीप सिंह द्वारा दिए गए दर्जनो गांव शामिल थें। इसके अतिरिक्त आलीशान व मजबूत किला गुनाचौर दखनी सराय में उनकी जागीर में सम्मिलित थी। अग्रेंजी सरकार की घोषणा, जिसमें यह निर्णय लिया कि सभी तोपों को स्थानीय मुखियों से जब्त करके इकटठा किया जाए तथा इन्हें पिघलाया जाए, विक्रम सिंह बेदी और अग्रेंज शासकों के बीच लड़ाई का कारण बनी। किसी भी कीमत पर बन्दूकों/तोपों के सर्मपण से स्पष्ट इन्कार करना, किलो के हवस्त होने व बन्दूकों/तोपों के पिघलने का कारण बना। इसके अतिरिक्त सजा के तौर पर जागीरों को जब्त किया गया तथा उसके जगह 31,212 रूपये पैंशन की पेशकश की गई जिसे बाद में घटाकर तुच्छ राशि 12,000 रूपये कर दिया गया। घटी हुई पैंशन की पेशकस को ठुकराने के बाद बाबा विक्रम सिंह बेदी ने पूरी तन्मयता से अंग्रेजों के विरूद्व पहाड़ी रियासत में सशस्त्रा विद्रोह शुरू कर दिया। यही वह समय था जब जसवां और दातारपुर के राजाओं ने भी विद्रोह किया जो समूची जसवां-दून घाटी हाजीपुर से रूपर तक फैल गया तथा अंग्रेजों के लिए रंग थी। बाबा विक्रम सिंह जसवां के राजा उमेंद सिंह की सेना को इकट्ठा करने के लिए प्रयासरत था परन्तु दुर्भाग्यवश विक्रम सिंह उससे शामिल हाने से पूर्व ही हार गया। पहाडी राजाओं की हार के उपरान्त अकेला पडने पर बिक्रम सिंह ने शेर सिंह की सेना में शामिल होना उचित समझा। चिंलियावाला और गुजरात के ऐतिहासिक युद्वो के उपरान्त राजविद्रोहियां के उच्चाध्किर प्राप्त नेताओं की रावलपिडी में एक बैठक बुलाई गई जिसमें व शामिल नही हुआ। बाबा विक्रम सिंह जिन्होने अन्य राजाओं के साथ सर्मपण किया 1863 में अपनी मृत्यु तक अमृतसर में ब्रिटिश शासकों की निगरानी में रहें। आजकल बाबा सर्वजोत सिंह बेदी पवित्रा गद्दी पर आसीन है।

वर्तमान ऊना जिला के पूर्व भाग में स्थित कुटलैहड रियासत, पुराने समय में काँगडा राज्य की सबसे छोटी रियासत थी। जैसा कि ये दो रियासतों चौकी और कुटलैहड़ में बंटा हुआ है। अतः यह राज्य आमतौर पर दो नामों से जाना जाता था। कुटलैहड राज्य का क्षेत्रा जसवां पहाडियां के श्रृंखलाओं की निरन्तरता के टूटने पर बना। जैसे-जैसे ये उठे हुए भू-भाग सतलुज की ओर बढते जाते है ये अचानक दो समानान्तर शाखाओं में विभाजित हो जाता है तथा पहाडियों के बीच की घाटी खूबसूरत कुटलैहड राज्य के नाम से जाना जाता है। यह राजवंश एक पुरातन महत्व का है।

इस परिवार के पूर्वज ब्राह्मण थे परन्तु शासक बनने के उपरान्त उनकी पहचान भी राजपूत के रूप में हो गई। श्री जी0सी0वार्नज ने उल्लेख किया है कि वह सम्बल जोकि मुरादावाद के समीप स्थित है से आए थें। परन्तु परिवारिक रिकार्ड के अनुसार इनके पूर्वज पूना के राजा के वंशज थें। दसवी या ग्याहरवीं सदी के लगभग परिवार के मुखिया श्री जसपाल द्वारा कुटलैहड और तलहटी के तालुका पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त अपने राज्य की राजधनी कोट कुटलैहड नामक स्थान को बनाया गया। शिमला की दो छोटी रियासतों भज्जी और कोटी के संस्थापक उनके दूसरे बेटे तथा पोते थे। इनके वंशज कुटलैहडियां कहलाते है।

यद्यपि मुगल इतिहास काल में इस राज्य का उल्लेख नही मिलता परन्तु शासकीय परिवार के पास मुगल वादशाहों द्वारा प्रदान की गई सन्नदें उपलब्ध् हैं जिसमें राय की उपाधि् और चौकी कुटलैहड मनखंडी क्षेत्रा नादौन और होशियारपुर कि तलहटी में स्थित थें के अध्किर सैनिक सेवा और करदाता की शर्त के फलस्वरूप प्रदान किए गए थे।  यद्यपि मुगल काल के दौरान उन्हें इस राज्य पर पूर्ण अध्किर प्राप्त थे परन्तु बाद में पडोसी राज्यों के आक्रमणों के परिणाम स्वरूप यह राज्य कुटलैहड तालुका तक सीमित होकर रह गया।

वर्ष 1758 में राजा घमण्ड चन्द जिसे अहमद शाह दुरानी द्वारा पहाडी राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया गया था ने राज्य के उतरी भाग से चौकी नामक क्षेत्रा को अपने अधीन कर लिया और सन् 1786 में राजा संसार चन्द द्वारा कुटलैहड पर अध्किर कर लेने के उपरान्त राजा को पूर्ण रूप से राज्य में मचित कर दिया गया। परन्तु गांरखों के आक्रमण के समय उनका पूर्ण राज्य उनके अध्किर में आ गया। सन् 1809 में यह राज्य सिक्खों के अधीन हो गया और सन् 1825 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कुटलैहड राज्य को अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने के निश्चय पर कोटवल्भ के किले को घेर लिया गया। राजा नारायण पाल द्वारा व्यक्तिगत रूप से सुरक्षा प्रबन्ध् न करने के कारण 2 महीने तक घेराबन्दी में कोई उन्नति नहीं हो सकी। राजा द्वारा 10000/- रूपये की जागीर स्वीकार करने के फलस्वरूप किले की घेराबन्दी समाप्त हो गई।

प्रथम सिक्ख युद्व के दौरान राजा नारायण पाल कोटवल्भ से सिक्खों को खदेडने में सफल हो गए और उनकी सेवाओं के एवज में उन्हें जागीर के अतिरिक्त 10000/- रूपये की जीविका प्रदान की गई जिसे उनके उतराध्किरियों के लिए भी 1188/- नजराने के बदले सुनिश्चित कर दिया गया। उनकी जागीर के अन्तर्गत आने वाली वन सम्पदा की 3/4 आमदनी के अध्किर भी उन्हें प्रदान कर दिए गए। बाद में राज परिवार के एक मुखिया राजा बृज पाल जिला काँगडा के वाससराय के पंचम दरवारी थें। 

गुरुद्वारा बाबा साहिब सिंह जी बेदी

गुरुद्वारा बाबा साहिब सिंह जी बेदी

जिला होशियारपुर की पंजाब राज विवरिण का 1883-84 युद्ध के अघ्याय आम जन में अम्बोटा में राजपूत चौध्री और टकारला के ब्राह्मणों का उल्लेख है, जो उपशीर्ष अबोध् परिवार पृष्ठ 78द्ध पृष्ठ 76-77 में भवौर परिवार की आठ शाखाओं जो हर शाखा के साथ राय की उपाधि् से विभूषित थे, अग्रिम परिवारों में कुंगडत के राजा परिवार जिन्हे मात्रा सम्मानित जमीदार का दर्जा प्राप्त था, वे 1801 रूपये सफेदपोशी भत्तो का लाभ उठाते थे। चार्ल्स फ्रैक्स मैसी ने अपनी रचना चीफस एण्ड फैमिलीज आफ नोट आफ पंजाब ;1890द्ध में पिरथीपुर के डडवाल राजपूतो के बारे में इसी तरह का उल्लेख किया है जोकि नीचे उद्ध्त है इस परिवार का पुरातन इतिहास पौराणिक तथ्य के आधर पर भबौर के राय परिवार की तुलना में काफी रोचक है। दोनों का सम्बन्ध् भूप चन्द से है जोकि अलौकिक शक्ति थे। किन्तु वे एक दूसरे से बीस पीढी पहले अलग शाखाओं में थे, जब गनी चन्द पुत्रा मेघ चन्द पर्वतीय श्रृखलाओ से वापिस आकर काँगडा में देहरा गोपीपुर के नजदीक गुलेर राज्य की स्थापना की जोकि होशियारपुर सीमा से उत्तर में स्थित है। उसकी सम्पति उसके बडे पुत्रा मकमल चन्द को हस्तांतरित हुई। अनुज श्री दाता वर्तमान में होशियारपुर तहसील के दसूहा की ओर प्रस्थान कर गया और वहां दातारपुर नाम राज्य की स्थापना की जोकि सैकडो वर्षा से अस्तित्व में था। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ तक यहां के शासक स्वतन्त्रा थे, जब कि कि महाराजा रणजीत द्वारा इस राज्य के राजकाज में रूचि रखनी शुरू न कर दी। वर्तमान प्रतिनिधि् के दादा राजा गोबिन्द चन्द को महाराजा रणजीत के लाहौर पंहुचने के आदेशों की अवहेलना के कारण संप्रभु शक्तियों से हाथ धोना पडा और जागीरदार के पद पर पदाबनत होना पडा। सन् 1818 ई0 में मृत्यु के समय उनके सपुत्रा राजा जगत चन्द को 4600 रूपये मूल्य की जागीर प्रदान की गई और इस का वह तब तक लाभ उठाता रहा। सन् 1846 ई0 मे दौआवा अंग्रेज शासन का हिस्सा बन गया। काँगडा के राजपूत राजा इस प्रभाव में थे कि अंग्रेजों के राज में उनके सारे पुराने अध्किर व विशेषधिकार  बहाल हो जायेगें जोकि सिक्खों ने उनसे छीन लिए थे। वह इस बजह से भी निराश थे कि नये शासक भी इस स्थिति को बदलने के हक में नही हैं जो देश में उनके आने से पूर्व चली आ रही थी। जसवां दातारपुर के राजाओं का विद्रोह और सर जांस लारेंस द्वारा इसको तुरन्त दवाना दूसरे अघ्याय में वर्णित है। राजा जगत चन्द को कैदी बनाकर उनके बडे बेटे देवी चन्द सहित अलमोडा के लिए निर्वासित कर दिया गया तथा उनको 3600 रूपये वार्षिक गुजारा भत्ता प्रदान किया गया।

सन् 1877 ई0 में जगत चन्द का देहांत हो गया। उसका बेटा उध्म सिंह पिरथीपुर जिला ऊना में रहता है तथा 600 रूपये पैंशन का लाभ उठा रहा है। उसकी सौतेली माँ को भी इतना ही भत्ता मिलता है तथा उसके भाई मान चन्द की विध्वा को भी थोडी सी पैंशन मिलती है। मियां देवी चन्द का 1883 ई0 में देहावसान हो गया था तथा वह अपने पीछे दो बेटे छोड़ गया। उसका बड़ा बेटा सुरम चन्द जम्मू के महाराजा की सेना का सेनापति था दूसरा पुत्रा रघुवीर चन्द मण्डी के राजा के अधीन कार्यरत था जिसकी शादी भी मण्डी के राजा की बहन से ही हुई थी तथा उसे भी अंग्रेज सरकार से 420 रूपये वार्षिक पैंशन मिलती थी। दोनों भाई शादी की वजह से सिरमौर के राजा के साथ जुड़े हुए थे। मियां उध्म सिंह की शादी भभौर के राय हीरा चन्द की चचेरी बहन से हुई थी। वह होशियारपुर जिले का दरवारी था। मियां देवी चन्द की विध्वाओं को 180 रूपये वार्षिक पैंशन मिलती थी।